वो अंतर्देशीय पत्र
उस हल्की नीली सी
बन्द अंतर्देशीय में
थोड़ा भीगा, थोड़ा दहकता
सा सन्देश, वो संदेश!
पोस्टकार्ड में लिखा
हुआ सा आदेश।
वो पोस्टमैन की
भारी सी आवाज
कहाँ गयी!
इन्तजार की चन्द
घड़ियाँ कहाँ गयी।
अपनों की जुबानी में
सपनों की कहानी
एक दूजे को दूर होते भी
नजदीक मिलाने के
बहाने कहाँ गए।
भावनाओं को व्यक्त
करने के ज़माने कहाँ गए।
ऊब चुका हूँ…
मोबाइल पर बात
व्हाट्सएप व फेसबुक पर
चैट करते करते।
अब कोई वो डाकिया के
खत वाला वक़्त लौट दे।
अब हर पल मैसेज आता है…
पर वो सुकून कहाँ!
जो
महीनों से आने वाली
चिठी में मिलता था, जिसे
रख के नजरों के सामने
कभी हल्की सी मुस्कराहट
कभी आसुओं की डबडबाहट
या फिर निश्चिंतता के आनन्द
एक सुकून की नींद सो जाया करते थे।
थोड़ा लिखा ….. बहुत समझना
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