स्नेह की प्रत्याशा
*स्नेह की प्रत्याशा*
मेरा अंतः, सब कुछ;
अपरिभाषित है।
वो सब कुछ;
मेरा है नहीं।।
प्रतिपल मेरे समक्ष;
वायु, पृथ्वी और सूर्य है।
जिसका उपादेय;
धूल, गुस्से, गंभीर और;
खुशमिजाजी;
जिनके साथ जीता हूँ।।
इसीलिए,
हर जन्म में;
अनेकों बार मरता हूँ और;
कई बार पैदा हुआ।
हर जन्म, हर मृत्यु में;
एक नई ऊर्जा मुझे मिलती है।
तभी तो मैं जीने के संघर्ष को;
अपना जीवन समझता हूँ।।
भूख और दवा के कारण;
जब किसी को तड़पते,
मरते देखता हूँ या;
अपनों से दूर,
विहड़, घनघोर जंगलों में,
शुष्क रेगिस्तान या दुर्गम पहाड़ो पे;
भूख-प्यास, सुविधा-असुविधा नहीं;
अपनों से बिछुड़ने का वियोग,
तड़पती बाँहें ! जलते नयन !
स्वजन से मिलने की प्रत्याशा में
घूँट-घूँटकर मरते देखता हूँ।।
क्या हम सब झूठे हैं ?
क्या मानवता, लोकतंत्र, व्यवस्था;
सब झूठी है ?
पर एक चेतना है,
जो सबसे प्यार करती है।
जो मैं! ब्रह्मांड, चराचर का;
अंश हूँ और मेरे शब्द;
उसकी आवाज है।।
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